मंगलवार, 9 फ़रवरी 2016

मौज-ए-सुल्‍तानी का मजार और दरभंगा





यह मजार हिंदुस्तान के आखरी मुगल बादशाह के सबसे बडे पोते जुबैरूद्दीन बहादुर का। अंग्रेज से बच कर दरभंगा पहुंचे इस मुगल शासन के उत्तराधिकारी को राज अतिथि का दरजा देकर दरभंगा ने अपना कर्ज चुकाया था। अगर 1857 का विद्रोह सफल हो जाता तो जुबैरूद्दीन देश के शासक होते। यह मजार दरभंगा में अपनी वजूद की लडाई लड रहा है।









आजादी की बात चली तो मुगलिया सल्तनत की बात कैसे न हो। अंग्रेज 200 साल में अपना ना हो सका, लेकिन मुगल ऐसे घुल मिल गये कि हम उनके नेतृत्व में ही आजादी की पहली लडाई लडी। दिल्ली के लालकिले के अंदर शायर दिल शंहशाह तो बस एक प्रतीक मात्र था। शायद यही कारण रहा है उसे जीते जी मार देने के लिए अंग्रेजों ने थाली में उसके बेटों का सिर परोस कर उसके सामने रख दिया। मुगलिया सल्तनत की वो आखिरी पीढी थी, क्योंकि बहादुर शाह अपने सबसे बडे पोते जुबैरुद्दीन गोरगन को युवराज घोषित करने से पहले ही उनका लालकिला हमेशा के लिए अंग्रेजों के कब्जेे में चला गया और अंग्रेज मुगलिया सल्तानत के इस उत्तराधिकारी को दिल्ली से तरिपार कर दिया और हिंदुस्तान में तीन साल से ज्यादा किसी एक जगह रहने की अनुमति भी नहीं दी। खानाबदोश जीवन जीते हुए एक बार उसकी मुलाकात दरभंगा के महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह से हुई। उन्होंने महाराज को जैसे ही अपना परिचय दिया, महाराज खडे हो गये, उसे देखने लगे। वो जमीन काशी की थी और वहां उनका तीसरा साल था। अनुरोध था कि दरभंगा में अगले पडाव की अनुमति दी जाये।



लक्ष्मेश्वर सिंह ने तत्काल जैबुउदीन को अपने साथ लेकर दरभंगा रवाना हो गये। दरभंगा में उसे राज अतिथि का दर्जा दिया और गुजर के लिए भत्ते‍ और नौकर की व्यवस्था की। अंग्रेज सरकार ने खासा विरोध किया और उन्हें महाराजाधिराज की उपाधि नहीं देने की धमकी दी। महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह ने कहा कि जिसने राज दिया अगर उसकी रक्षा नहीं कर पाउंगा, तो महाराजाधिराज कहला कर क्‍या करूंगा। 1857 का विद्रोह अगर सफल होता तो जैबुउदीन निश्चित तौर पर मुगलिया सल्‍तनत का अगला शंहशाह होता। महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह ने उनकी तीन साल बाद जगह बदलने का फरमान भी खत्म करबा दिया और वो बाकी का जीवन दरभंगा में बडे आराम से काटा। इस दौरान उन्होंने एतिहासिक किताब मौज-ए-सुल्तानी लिखी। इस किताब में बहुत सारी बातें उस समय के तिरहुत और वहां की शासन व्यवस्था की कहानी कहती है। मुझे लाल किले और ताजमहल से ज्यादा दरभंगा स्थित जैबुउदीन का मजार मुगलिया सल्तनत की याद दिलाता है।

फोटो साभार : विजय कुमार श्रीवास्तुव (इटीवी, दरभंगा)

कुछ जानकारी आभार सँजय मिश्र जी का ब्लाग से Nishit Mishra जी ने भी दी है ।

आतिश -ए - पिन्हाँ ' के लेखक मुश्ताक अहमद की माने तो महराज का - हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स - में काफी असर था। जान की सुरक्षा से निश्चिन्त हो जुबैरुद्दीन ने जीवन के बाकि के साल किताबें लिखते हुए बिताई। दरभंगा में रहकर उन्होंने तीन किताबें लिखी। उनकी लिखी ' चमनिस्तान - ए - सुखन ' कविता संग्रह है जबकि ' मशनबी दुर -ए - सहसबार ' महाकाव्य है। जुबैरुद्दीन की तीसरी रचना ' मौज - ए - सुलतानी ' है। इसमें देश की विभिन्न रियासतों की शासन व्यवस्था का जिक्र है। खास बात ये है कि महाकाव्य ' मशनबी दुर -ए - सहसबार ' में राज दरभंगा और मिथिला की संस्कृति के विभिन्न पहलुओं को तफसील से बताया गया है। राज परिवार की अंतिम महारानी के द्वारा संचालित कल्याणी फाउंडेशन की ओर से ''मौज -ए -सुलतानी ' को प्रकाशित कराया गया है। कल्याणी फाउंडेशन के लाएब्रेरियन पारस के मुताबिक़ मौज ए सुल्तानी की मूल प्रतियों में से एक राज परिवार के पास है। मुश्ताक अहमद भी इसकी तसदीक करते हैं। उनके अनुसार ये प्रति कुमार शुभेश्वर सिंह की लाएब्रेरी में उन्होंने देखी थी। वे दावा करते है कि इस प्रति में जुबैरुद्दीन का मूल हस्ताक्षर भी है। विलियम डलरिम्पल अपनी किताब में दारा बखत की बार - बार चर्चा करते हैं जबकि जुबैरुद्दीन पर वे मौन हैं। उधर लाला श्रीराम अपनी किताब 'खुम - खान ए - जाबेद ' में बहादुरशाह की वंशावली का जिक्र करते हैं। इस किताब में दावा किया गया है कि जुबैरुद्दीन ही बहादुरशाह के वारिश थे। असल में बहादुरशाह के सबसे बड़े बेटे दारा बख्त 1857 के विद्रोह से पहले ही मर गए थे। लेकिन सिपाही विद्रोह के बाद सब कुछ बदल गया। बहादुरशाह के पांच बेटों को अंग्रेजों ने दिल्ली के खूनी दरवाजे के निकट बेरहमी से मार दिया। स्व महाराजाधीराज लक्ष्मीश्वर सिंह ने काजी मुहल्ला में उनके लिए घर बनवा दिया। काजी मोहल्ला ही आज का कटहल वाड़ी है। जुबैर के लिए मस्जिद भी बना दी गई। लेकिन बदकिस्मती ने उनका साथ नहीं छोड़ा। जुबैरुद्दीन के दो बेटों की मौत हैजा से हो गई। ये साल 1902 की बात है। इसी साल ग़मगीन उनकी पत्नी भी दुनिया छोड़ गई। जुबैरुद्दीन का इंतकाल 1910 में हुआ। उनका अंतिम संस्कार दिग्घी लेक के किनारे किया गया। राज परिवार की तरफ से 1914 में उस जगह पर एक मजार बनबाया गया। रेड सैंड स्टोन से बना ये मजार जर्जर हालत में है। दीवार में लगे खूबसूरत झरोखे कई जगह से टूट गए हैं। मजार के अन्दर कंटीले घास उग आए हैं। इसके अन्दर जाने वाली सीढ़ी खस्ताहाल है। दरवाजे पर बना आर्क भी दरकने लगा है। मजार के केयरटेकर उस्मान को इस बात का अंदाजा नहीं है कि ये मजार मुगलों के अंतिम वारिश की है।



... अगली वार विलियम डलरिंपल भारत आएं तो दरभंगा के संस्कृति प्रेम पर अट्टहास करते इस मजार को जरूर देखें।

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