बुधवार, 29 अप्रैल 2015

लक्ष्मेश्वर विलास पैलेस : मरा हाथी भी नौ लाख का


Lakshmeshwar Vilas Palace, Darbhanga (Bihar)
Lakshmeshwar Vilas Palace, Darbhanga (Bihar) या लक्ष्मेश्वर विलास पैलेस, आनंदबाग,दरभंगा, बिहार, भारत।

19वीं शताब्‍दी में निर्मित एशिया के सर्वश्रेष्ठ महलों में इसका नाम सबसे ऊपर रखा जाता है। फ्रेंच वास्तुशिल्प से बना लक्ष्मेश्वर विलास पैलेस आज एक यूनिवर्सिटी के रूप में प्रयोग किया जा रहा है, लेकिन इसकी खूबसूरती और सुविधाओं के चर्चे 1884 में प्रकाशित लंदन टाइम्‍स के मुख्‍य पन्‍ने पर जगह बना चुकी है। वैसे हाल के वर्षों में हुए एक ताजा सर्वे में भी इस महल को भारत का 15वां सबसे सुदर वास्तुशिल्प वाला महल
बताया गया है। बिहार सरकार की उपेक्षा और दरभंगा के लोगों की उदासीनता के बावजूद इसका स्‍थान पाना, एक प्रकार से मरा हुआ हाथी भी नौ लाख का वाली कहावत को सही ठहराता है।

Lakshmeshwar Vilas Palace - Up Close



कुछ जरुरत, तो कुछ परंपरा

इसके निर्माण के पीछे कुछ जरुरत, तो कुछ परंपरा मानी जाती है। दरअसल खंडवाला राजवंश में नये डीह को नयी शुरुआत का बोधक माना जाता है। महेश्‍वर सिंह के निधन के बाद उनके दोनों बेटों के नबालिग होने के कारण तिरहुत की सत्‍ता कोर्ट आफ वार्डस को चली गयी। अंग्रेजों के हाथों तिरहुत का प्रशासन जाने से कई चीजें व्‍यवस्थित हुई और तिरहुत के राजस्‍व में एतिहासिक बढोतरी हुई। यही कारण रहा कि जब पटना कॉलेज में तिरहुत के नये महाराजा के रूप में लक्ष्‍मेश्‍वर सिंह का राज्‍याभिषेक हुआ, तो उनकी पूंजी उनके पिता के मुकाबले कई गुणा अधिक हो चुकी थी। अंग्रेजी शिक्षा व आधुनिक सोच वाले तिरहुत के महाराजा के लिए पुराना छत्र निवास पैलेस छोटा और पारंपरिक था। ऐसे में 1880 में तय हुआ कि नये महाराज के लिए एक महल और एक सचिवालय का निर्माण कराया जाये। लक्ष्‍मेश्‍वर सिंह चाहते थे कि उनका महल छत्र विलास पैलेस से पूर्व बने, लेकिन मिथिला के पंडितों ने नरगौना तहसील से आगे जाने पर सत्‍ता जाने की आशंका जता दी, इसके बाद छत्र विलास पैलेस के पीछे आनंद बाग में नया महल बनाने की योजना तैयार हुई, जबकि सचिवालय छत्रविलास पैलेस से दक्षिण मोती महल के नाम से बनाने का फैसला हुआ।






पैलेस ऑफ वरसाइलज से प्ररित है वास्तुशिल्प

19वीं और प्रारंभिक 20वीं शताब्दी में पश्चिमी देशों में बड़ी शीघ्रता से विकास हुआ, फ्रांस इसका केंद्र था। इसलिए महाराजा लक्ष्‍मेश्‍वर सिंह ने अपने नये पैलेस के लिए भी फ्रांस को ही याद किया। कला, वास्तुशिल्प और विदेशी भवन निर्माण शैली के जुनूनी महाराजा की विरासत आज भी उस दौर की समृद्धि की साक्षी है। फ्रांस के प्रसिद्ध पैलेस ऑफ वरसाइलज व पैलेस ऑफ फाउंटेन ब्लू के डिज़ाइन पर निर्मित लक्ष्‍मेश्‍वर विलास पैलेस फ्रांसीसी वास्तुकार द्वारा निर्मित महल उनके वास्तु प्रेम को बयां करते हैं। तकरीबन 500 सौ एकड़ में फ्रांसीसी आर्किटेक्ट डीबी मारसेल द्वारा डिजाइन किये गये इस महल को ब्रिटिश अभियंता मेजर सी मंट ने बनाया है। लाल व पीले रंग का यह पैलेस विभिन्‍न प्रकार के करीब 100 कमरो से सुसज्जित है। इस महल का शिलान्‍यास 7 अक्‍टूबर, 1880 को हुआ था और इसका शिलान्‍यास करने तत्‍कालीन ले. गर्वनर सर आशले हेडन खुद दरभंगा आये थे। इसके निर्माण में लगे आठ वर्ष इसकी भव्यता के परिचायक हैं। इस महल का दरबार हॉल, फ्रांस के दरबार हॉल का नैनो वर्जन माना जाता है। फाल्‍स सिलिंग पर रत्‍न जरित कलात्‍मक छवि के साथ-साथ चारो ओर युवतियों की प्रतिमाओं की ऐसी छवि शायद ही भारत के किसी अन्‍य दरबाल हॉल में देखने को मिलती है। इसके बेंकेट हॉल की खूबसूरती मुगल और राजस्‍थानी शैली को भी कहीं पीछे छोड देती है। दीवालों पर रत्‍न जरित कलाकारी देखने दूर-दूर से लोग आते थे। 1932 में भारत के तत्‍कालीन वासराय ने इस महल को देखकर इतना रोमांचित हुए थे कि इसके डांस रूम में नाचने से खुद को नहीं रोक पाये। संयोग से उस महत्‍वपूर्ण क्षण का विडियो आज भी मौजूद है। छत्र विलास पैलेस के जमाने तक समय का ज्ञान महल में लगे घंटे बजाकर कराया जाता था, लेकिन इस पैलेस में पहली बार लंदन से लायी गयी घड़ी से समय का ज्ञान कराया जाने लगा। यह भारत का संभवत: पहला महल है, जिसके अंदर महिलाओं के स्‍नान के लिए तरणताल का निर्माण हुआ था। इससे पूर्व तालाबों और नदियों में ही स्‍नान की पंरपरा रही थी। इसके दरबार हॉल में भी महिलाओं के लिए खास तौर पर जगह निर्धारित किया गया था। इस पहले में पहले दीये से रोशनी की व्‍यवस्‍था थी लेकिन 1939 में इसमें बिजली ममुहैया करा दी गयी। इस महल का रोशनदान आज भी अपने सौंदर्य की कहानी कहता है। आज इस महल की हालत बेहद खराब है। दरबार हॉल में पानी रिसता है। लकडी की सीढियां हिलने लगी हैं। फायरवॉल में कागजात रखे जाते हैं तो तरणताल में कार्यालय चलता है। कहने को राज्‍य सरकार ने इसे धरोहर घोषित कर रखा है, लेकिन इसके आसपास बेतरकीब निर्माण बदस्‍तूर जारी है और खतरनाक जगहों पर भी लोगों को जाने से प्रतिबंधित नहीं किया गया है। कमाल की बात यह भी है कि इस हल के बनने के करीब पांच साल बाद बने कूचबिहार पैलेस को सौ साल पूरे होने से पूर्व ही एएसआइ ने अपने अधीन कर लिया, जबकि सौ वसंत देख चुके इस पैलेस के प्रति उसका रवैया आज भी उदासीन है।




इस महल के पास था दुनिया का बेहतरीन बगान

लक्ष्मेश्वर  विलास पैलेस अपने बगान के लिए भी विश्‍व प्रसिद्ध है। 20वीं शताब्‍दी के महान बागवान चाल्‍स मैरिज को इस महल का मुख्‍य बागवान नियुक्‍त किया गया था। करीब 41 हजार पेडों से सुसज्जित इसका बगान एशिया का सबसे समृद्ध बोटेनिकल व जुलसॅजिकल गार्डेन माना गया है। अकेले आम की ही ऐसी 40 प्रजाति यहां विकसित की गयी जो दुनिया में और कहीं नहीं थी। नरगौना तहसील आम के बगान के लिए अकबरनामा में भी उल्‍लेखित है। चाल्‍स मैरिज ने पुराने आम बगान में विभिन्‍न प्रकार के अन्‍य महत्‍वपूर्ण पेड लगाकर इसे सर्वश्रेष्‍ट बना दिया। बाद में चाल्‍स मैरिज ब्रिटेन की महारानी का मुख्‍य बागवान के रूप में नियुक्‍त होकर इंग्‍लैड चले गये। आज इस बगयान की लगभग 60 फीसदी पेड काटे जा चुके हैं।


कई बदलाव का गवाह रहा है महल

इस महल का दरबार हॉल भारतीय इतिहास के कई ऐसे पहलुओं का गवाह रहा है, जिसकी आज चर्चा तक नहीं होती। 1884 पंडौल में नील के खिलाफ हुए आंदोलन के बाद इसी दरबार हॉल में नील के विकल्‍प पर विचार करने के लिए एक समिति का गठन किया गया। इसी दरबार हॉल में तिरहुत के विकास को तेज करने के लिए तिरहुत रेलवे की स्‍थापना की घोषणा की गयी। 1897 में गांधी ने जब द अफ्रीका में अंगेजों के खिलाफ आंदोलन चलाने के लिए तिरहुत सरकार से मदद मांगी थी, तो महाराजा ने इसी दरबार हॉल में गांधी को मदद देने की घोषणा की थी। माना जाता है कि 1915 में भारत आने से पहले मोहनदास को गांधी बनाने में दरभंगा महाराज की वो मदद मील का पत्‍थर साबित हुआ। इसी प्रकार इसी महल में महाराजा लक्ष्‍मेश्‍वर सिंह ने 1857 के विद्रोह के सबसे बडे नायक बहादुर शाह जफर के पोते जबुरुद़दीन को राज्‍य अतिथि का दर्जा देने की घोषणा की। उस वक्‍त उसे पनाह देना अंग्रेजों के खिलाफ एक बडा कदम माना गया था। इस कारण अंग्रेज ने अंतिम सांस तक दरभंगा को स्‍वतंत्र राज्‍य की मान्‍याता नहीं दी और न ही लक्ष्‍मेश्‍वर सिंह को महाराजाधिराज का टाइटिल ही प्रदान किया। इसी महल के दरबार हॉल में कांग्रेस की स्‍थापना के लिए आर्थिक मदद का प्रस्‍ताव स्‍वीकार किया गया और इसी दरबार हॉल में बंगाल भू‍मि अधिग्रहण कानून 1884 के खिलाफ निर्णय लिया गया। जमीन पर किसानों को पहला हक देने की बात करनेवाले महाराजा लक्ष्‍ेमश्‍वर सिंह पहले आदमी थे। इसके साथ ही लक्ष्‍मेश्‍वर सिंह ने तिरहुत में बहु विवाह, बाल विवाह को प्रतिबंधित किया, साथ ही नारी शिक्षा को बढावा देने के लिए ठोस पहल की। महज 50 वर्ष की अल्‍प आयु में स्‍वर्गवासी हो गये, लेकिन महज 17 साल के शासन काल में उन्‍होंने मिथिला को 20वीं सदी के लिए तैयार कर दिया। विदेशी कलात्मक वस्तुओं के संग्रह के जुनूनी महाराजा लक्ष्‍मेश्‍वर सिंह के संग्रह में दुर्लभ कलाकृतियां, पेंटिंग्स, फर्नीचर, वर्ल्ड क्लॉक, फोटो गैलरी आदि शामिल हैं, जो आज दरभंगा के लक्ष्‍मेश्‍वर सिंह संग्रहालय में उपेक्षा का दंश झेल रहा है।






तीन महाराजाओं का सजा यहां दरबार

संतानहीन होने के कारण महाराजा लक्ष्‍मेश्‍वर सिंह के निधन के बाद उनके छोटे भाई राजनगर के जमींदार रामेश्‍वर सिंह तिरहुत सरकार बने। उन्‍होंने इस महल में किसी प्रकार का बदलाव नहीं किया, सच पूछा जाये तो इस महल का भाेग रामेश्‍वर सिंह ने ही किया, क्‍योंकि महाराजा लक्ष्‍मेश्‍वर सिंह इस महल के पूर्ण निर्मित होने के कुछ वर्षों बाद ही स्‍वर्गवासी हो गये। रामेश्‍वर सिंह के बाद उनके पुत्र कामेश्‍वर सिंह ने इसी महल में राजतिलक करबाया। 1934 के भूकंप में यह महल बुरी तरह क्षतिग्रस्‍त हो गया। खासकर इसका घंटाघर टूट गया। महाराजा कामेश्‍वर सिंह ने पूरे महल को उसी अंदाज में बनवाया और लंदन से मंगवा कर दूसरी घडी वहां लगावा दी। लेकिन उन्‍होंने अपना नया आसियाना छत्र विलास पैलेस की जगह पर बनवाया। माना जाता है कि पूर्व दिशा में जाने के कारण ही उनकी सत्‍ता हमेशा के लिए चली गयी। युवराज घोषित हुए कुमार जीवेश्‍वर सिंह तिरहुत सरकार नहीं बन सके। वैसे 1950 में ही जमींदारी के जाने के बाद राज सिंहासन एक दार्शनीय वस्तु बन कर रह गया।



पहला निजी विश्‍वविद्यालय

महाराजा कामेश्‍वर सिंह इस महल को पहला निजी विश्‍वविद्यालय के रूप में सरकार को दान दे दिया। 1960 में दान देने के उपरात यह महल कामेश्‍वर सिंह संस्‍कृत विश्‍वविद्यालय के मुख्‍यालय के रूप में पहचाना जाता है

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